अंबर ने मारी पिचकारी
भीगी धरती की साड़ी
प्रत्युत्तर में धरती ने भी
जमकर के दीन्ही गारी
बैठ झितिज रंगों को घोला
भूली मरजादा सारी
बरजोरी जब होने लागी
नभ ने चुनर दी फाड़ी
भीगा चितवन, भीगा यौवन
तुम कब मुझे भिगाओगे
बीती जाती रुत फागुन की
तुम कब रंग लगाओगे....
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भंवरा भी बौराय गया है
देख कली की अंगड़ाई
गुंजन करके कहने लगा
आई सखी होली आई
पान किया मकरंद भ्रमर ने
कली पे छाई तरुणाई
आलिंगन करने भंवरे का
पवन के संग दौड़ी आई
बेकल है मन, बेसुध है तन
तुम कब अंग लगाओगे
बीती जाती रुत फागुन की
तुम कब रंग लगाओगे.....
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छेड़ रही है शिव को शिवा फिर
दूर भाग शरमाई है
फाग ऋतु की देख खुमारी
शिव ने भांग चढ़ाई है
राधा भी कान्हा को रंगने
बरसाने से आई है
माखन की मटकी में छुपाके
प्रेम रंग भर लाई है
सब ही होली खेलें मिलकर
तुम कब मिलने आओगे
बीती जाती रुत फागुन की
तुम कब रंग लगाओगे....